उर्दू के महान शायरों में से एक शायर अमीर मीनाई जिनका पूरा नाम मुंशी अमीर अहमद “मीनाई” है इनका जन्म 1828 में लखनऊ में हुआ था व इनकी मृत्यु 71 साल की उम्र में 13 अक्टूबर 1900 में हैदराबाद डेक्कन में हुई थी | अमीर मीनाई ने 22 किताबे लिखी थी इसीलिए हम आपको उनके द्वारा लिखे गए कुछ बेहतरीन शायरियो के बारे में बताते है जिन शायरियो को पढ़ कर आप इनके बारे में जान सकते है |
Urdu Shayari Ameer Minai
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मानी हैं मैं ने सैकड़ों बातें तमाम उम्र
आज आप एक बात मेरी मान जाइए
हिलाल ओ बद्र दोनों में ‘अमीर’ उन की तजल्ली है
ये ख़ाका है जवानी का वो नक़्शा है लड़कपन का
हटाओ आइना उम्मीद-वार हम भी हैं
तुम्हारे देखने वालों में यार हम भी हैं
वाए क़िस्मत वो भी कहते हैं बुरा
हम बुरे सब से हुए जिन के लिए
शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तो अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता आहिस्ता
वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं
मैं शाद हूँ कि हूँ तो किसी की निगाह में
ग़ज़ल्स ऑफ़ अमीर मीनाई इन हिंदी
है वसिय्यत कि कफ़न मुझ को इसी का देना
हाथ आ जाए जो उतरा हुआ पैराहन-ए-दोस्त
वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए
हँस के फ़रमाते हैं वो देख के हालत मेरी
क्यूँ तुम आसान समझते थे मोहब्बत मेरी
शाख़ों से बर्ग-ए-गुल नहीं झड़ते हैं बाग़ में
ज़ेवर उतर रहा है उरूस-ए-बहार का
ये कहूँगा ये कहूँगा ये अभी कहते हो
सामने उन के भी जब हज़रत-ए-दिल याद रहे
ये भी इक बात है अदावत की
रोज़ा रक्खा जो हम ने दावत की
Amir Meenai Shayari
समझता हूँ सबब काफ़िर तिरे आँसू निकलने का
धुआँ लगता है आँखों में किसी के दिल के जलने का
हम जो पहुँचे तो लब-ए-गोर से आई ये सदा
आइए आइए हज़रत बहुत आज़ाद रहे
सीधी निगाह में तिरी हैं तीर के ख़्वास
तिरछी ज़रा हुई तो हैं शमशीर के ख़्वास
वस्ल में ख़ाली हुई ग़ैर से महफ़िल तो क्या
शर्म भी जाए तो मैं जानूँ कि तन्हाई हुई
सौ शेर एक जलसे में कहते थे हम ‘अमीर’
जब तक न शेर कहने का हम को शुऊर था
वो और वा’दा वस्ल का क़ासिद नहीं नहीं
सच सच बता ये लफ़्ज़ उन्हीं की ज़बाँ के हैं
Ameer Minai Ki Shayari
वही रह जाते हैं ज़बानों पर
शेर जो इंतिख़ाब होते हैं
हो गया बंद दर-ए-मै-कदा क्या क़हर हुआ
शौक़-ए-पा-बोस-ए-हसीनाँ जो तुझे था ऐ दिल
सादा समझो न इन्हें रहने दो दीवाँ में ‘अमीर’
यही अशआर ज़बानों पे हैं रहने वाले
सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता
यार पहलू में है तन्हाई है कह दो निकले
आज क्यूँ दिल में छुपी बैठी है हसरत मेरी
हाथ रख कर मेरे सीने पे जिगर थाम लिया
तुम ने इस वक़्त तो गिरता हुआ घर थाम लिया
Amir Minai Famous Shayari
सब हसीं हैं ज़ाहिदों को ना-पसंद
अब कोई हूर आएगी उन के लिए
शौक़ कहता है पहुँच जाऊँ मैं अब काबे में जल्द
राह में बुत-ख़ाना पड़ता है इलाही क्या करूँ
सारी दुनिया के हैं वो मेरे सिवा
मैं ने दुनिया छोड़ दी जिन के लिए
शब-ए-विसाल बहुत कम है आसमाँ से कहो
कि जोड़ दे कोई टुकड़ा शब-ए-जुदाई का
सारा पर्दा है दुई का जो ये पर्दा उठ जाए
गर्दन-ए-शैख़ में ज़ुन्नार बरहमन डाले
रोज़-ओ-शब याँ एक सी है रौशनी
दिल के दाग़ों का चराग़ाँ और है
Shayari of Ameer Minai
शाएर को मस्त करती है तारीफ़-ए-शेर ‘अमीर’
सौ बोतलों का नश्शा है इस वाह वाह में
है जवानी ख़ुद जवानी का सिंगार
सादगी गहना है इस सिन के लिए
वस्ल हो जाए यहीं हश्र में क्या रक्खा है
आज की बात को क्यूँ कल पे उठा रक्खा है
रास्ते और तवाज़ो’ में है रब्त-ए-क़ल्बी
जिस तरह लाम अलिफ़ में है अलिफ़ लाम में है
मिला कर ख़ाक में भी हाए शर्म उन की नहीं जाती
निगह नीची किए वो सामने मदफ़न के बैठे हैं
मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से
जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं
Ameer Minai Naat Tashreeh
मिरा ख़त उस ने पढ़ा पढ़ के नामा-बर से कहा
यही जवाब है इस का कोई जवाब नहीं
हुए नामवर बे-निशाँ कैसे कैसे
ज़मीं खा गई आसमाँ कैसे कैसे
शैख़ कहता है बरहमन को बरहमन उस को सख़्त
काबा ओ बुत-ख़ाना में पत्थर है पत्थर का जवाब
फिर बैठे बैठे वादा-ए-वस्ल उस ने कर लिया
फिर उठ खड़ा हुआ वही रोग इंतिज़ार का
नावक-ए-नाज़ से मुश्किल है बचाना दिल का
दर्द उठ उठ के बताता है ठिकाना दिल का
लाए कहाँ से उस रुख़-ए-रौशन की आब-ओ-ताब
बेजा नहीं जो शर्म से है आब आब शम्अ
Amir Minai Urdu Poetry
लुत्फ़ आने लगा जफ़ाओं में
वो कहीं मेहरबाँ न हो जाए
रहा ख़्वाब में उन से शब भर विसाल
मिरे बख़्त जागे मैं सोया किया
नब्ज़-ए-बीमार जो ऐ रश्क-ए-मसीहा देखी
आज क्या आप ने जाती हुई दुनिया देखी
पहले तो मुझे कहा निकालो
फिर बोले ग़रीब है बुला लो
मिसी छूटी हुई सूखे हुए होंट
ये सूरत और आप आते हैं घर से
मुश्किल बहुत पड़ेगी बराबर की चोट है
आईना देखिएगा ज़रा देख-भाल के
Amir Minai Ghazal
पुतलियाँ तक भी तो फिर जाती हैं देखो दम-ए-नज़अ
वक़्त पड़ता है तो सब आँख चुरा जाते हैं
मस्जिद में बुलाते हैं हमें ज़ाहिद-ए-ना-फ़हम
होता कुछ अगर होश तो मय-ख़ाने न जाते
पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया
बे-कार है जो दाँत दहन से निकल गया
पहलू में मेरे दिल को न ऐ दर्द कर तलाश
मुद्दत हुई ग़रीब वतन से निकल गया
न वाइज़ हज्व कर एक दिन दुनिया से जाना है
अरे मुँह साक़ी-ए-कौसर को भी आख़िर दिखाना है
मौक़ूफ़ जुर्म ही पे करम का ज़ुहूर था
बंदे अगर क़ुसूर न करते क़ुसूर था
