ऐतबार साजिद जी एक मशहूर पाकिस्तान के शायर थे इनका जन्म 1948 में इस्लामाबाद में हुआ था इन्हे उर्दू बहुत अच्छी तरह से ज्ञान है इसीलिए इन्होने अपनी अधिकतर रचनाये उर्दू भाषाओ में की है | इन्होने अब तक नज़्म, ग़ज़ल व कई बेहतरीन शेर लिखे है जिन्हे है जान सकते है | इसीलिए हम आपको इनके द्वारा लिखी गयी कुछ बेहतरीन उर्दू की शेरो शायरियो के बारे में बताते है जो जिन्हे पढ़ मकर आप इनके बारे में काफी कुछ जान सकते है |
Aitbar Sajid Ki Shayari
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डाइरी में सारे अच्छे शेर चुन कर लिख लिए
एक लड़की ने मिरा दीवान ख़ाली कर दिया
जिस को हम ने चाहा था वो कहीं नहीं इस मंज़र में
जिस ने हम को प्यार किया वो सामने वाली मूरत है
जो मिरी शबों के चराग़ थे जो मिरी उमीद के बाग़ थे
वही लोग हैं मिरी आरज़ू वही सूरतें मुझे चाहिएँ
Aitbar Sajid Poetry
ग़ज़ल फ़ज़ा भी ढूँडती है अपने ख़ास रंग की
हमारा मसअला फ़क़त क़लम दवात ही नहीं
गुफ़्तुगू देर से जारी है नतीजे के बग़ैर
इक नई बात निकल आती है हर बात के साथ
इतना पसपा न हो दीवार से लग जाएगा
इतने समझौते न कर सूरत-ए-हालात के साथ
दिए मुंडेर प रख आते हैं हम हर शाम न जाने क्यूँ
शायद उस के लौट आने का कुछ इम्कान अभी बाक़ी है
Shayari of Aitbar Sajid
अब तो ख़ुद अपनी ज़रूरत भी नहीं है हम को
वो भी दिन थे कि कभी तेरी ज़रूरत हम थे
बरसों ब’अद हमें देखा तो पहरों उस ने बात न की
कुछ तो गर्द-ए-सफ़र से भाँपा कुछ आँखों से जान लिया
भीड़ है बर-सर-ए-बाज़ार कहीं और चलें
आ मिरे दिल मिरे ग़म-ख़्वार कहीं और चलें
छोटे छोटे कई बे-फ़ैज़ मफ़ादात के साथ
लोग ज़िंदा हैं अजब सूरत-ए-हालात के साथ
Aitbar Sajid Poetry Books PDF
जुदाइयों की ख़लिश उस ने भी न ज़ाहिर की
छुपाए अपने ग़म ओ इज़्तिराब मैं ने भी
मकीनों के तअल्लुक़ ही से याद आती है हर बस्ती
वगरना सिर्फ़ बाम-ओ-दर से उल्फ़त कौन रखता है
मुझे अपने रूप की धूप दो कि चमक सकें मिरे ख़ाल-ओ-ख़द
मुझे अपने रंग में रंग दो मिरे सारे रंग उतार दो
पहले ग़म-ए-फ़ुर्क़त के ये तेवर तो नहीं थे
रग रग में उतरती हुई तन्हाई तो अब है
Aitbar Sajid Romantic Poetry
फिर वही लम्बी दो-पहरें हैं फिर वही दिल की हालत है
बाहर कितना सन्नाटा है अंदर कितनी वहशत है
मुख़्तलिफ़ अपनी कहानी है ज़माने भर से
मुनफ़रिद हम ग़म-ए-हालात लिए फिरते हैं
मेरी पोशाक तो पहचान नहीं है मेरी
दिल में भी झाँक मिरी ज़ाहिरी हालत पे न जा
किसे पाने की ख़्वाहिश है कि ‘साजिद’
मैं रफ़्ता रफ़्ता ख़ुद को खो रहा हूँ
Aitbar Sajid Ghazals
मैं तकिए पर सितारे बो रहा हूँ
जनम-दिन है अकेला रो रहा हूँ
अजब नशा है तिरे क़ुर्ब में कि जी चाहे
ये ज़िंदगी तिरी आग़ोश में गुज़र जाए
किसी को साल-ए-नौ की क्या मुबारकबाद दी जाए
कैलन्डर के बदलने से मुक़द्दर कब बदलता है
रस्ते का इंतिख़ाब ज़रूरी सा हो गया
अब इख़्तिताम-ए-बाब ज़रूरी सा हो गया
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तअल्लुक़ात में गहराइयाँ तो अच्छी हैं
किसी से इतनी मगर क़ुर्बतें भी ठीक नहीं
रिहा कर दे क़फ़स की क़ैद से घायल परिंदे को
किसी के दर्द को इस दिल में कितने साल पालेगा
तअल्लुक़ किर्चियों की शक्ल में बिखरा तो है फिर भी
शिकस्ता आईनों को जोड़ देना चाहते हैं हम
तुम्हें जब कभी मिलें फ़ुर्सतें मिरे दिल से बोझ उतार दो
मैं बहुत दिनों से उदास हूँ मुझे कोई शाम उधार दो
Urdu Ghazal Aitbar Sajid
फूल थे रंग थे लम्हों की सबाहत हम थे
ऐसे ज़िंदा थे कि जीने की अलामत हम थे
ये जो फूलों से भरा शहर हुआ करता था
उस के मंज़र हैं दिल-आज़ार कहीं और चलें
ये बरसों का तअल्लुक़ तोड़ देना चाहते हैं हम
अब अपने आप को भी छोड़ देना चाहते हैं हम
हम तिरे ख़्वाबों की जन्नत से निकल कर आ गए
देख तेरा क़स्र-ए-आली-शान ख़ाली कर दिया
