भारत के जानेमाने कवियों में से एक कवि केदारनाथ जी ने कई तरह की रचनाये की है इनका जन्म 07 जुलाई 1934 को चकिया गाँव, बलिया जिला, उत्तर प्रदेश में हुआ तथा इनकी मृत्य 83 साल की उम्र में 19 मार्च 2018 में हुआ था | इनकी रचनाओं की बदौलत इन्हे सन 1989 में साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा सन 2013 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था | इसीलिए हम आपको केदारनाथ जी द्वारा लिखी गयी कुछ बेहतरीन कविताओं के बारे में बताते है जिसकी मदद से आप उनके बारे में काफी कुछ जान सकते है |
केदारनाथ सिंह की कविता बनारस पानी की प्रार्थना
बिना कहे भी जानती है मेरी जिह्वा
कि उसकी पीठ पर भूली हुई चोटों के
कितने निशान हैं
कि आती नहीं नींद उसकी कई क्रियाओं को
रात-रात भर
दुखते हैं अक्सर कई विशेषण।
कि राज नहीं-भाषा
भाषा-भाषा सिर्फ भाषा रहने दो मेरी भाषा को
अरबी-तुर्की बांग्ला तेलुगू
यहां तक कि एक पत्ती के हिलने की आवाज भी
मैं सब बोलता हूं जरा-जरा
जब बोलता हूं हिन्दी.
जड़ों की डगमग खड़ाऊं पहने
वह सामने खड़ा था
सिवान का प्रहरी
जैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस-
एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्ष
जिसके शीर्ष पर हिल रहे
तीन-चार पत्ते
कितना भव्य था
एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर
महज तीन-चार पत्तों का हिलना
उस विकट सुखाड़ में
सृष्टि पर पहरा दे रहे थे
तीन-चार पत्ते
केदारनाथ सिंह कविता कोश
हिंदी मेरा देश है
भोजपुरी मेरा घर
….मैं दोनों को प्यार करता हूं
और देखिए न मेरी मुश्किल
पिछले साठ बरसों से
दोनों को दोनों में
खोज रहा हूं।
लोकतन्त्र के जन्म से बहुत पहले का
एक जिन्दा ध्वनि-लोकतन्त्र है यह
जिसके एक छोटे से ‘हम ’ में
तुम सुन सकते हो करोडों
‘मैं ’ की घडकनें
किताबें .
जरा देर से आईं..
इसलिए खो भी जाएं
तो डर नहीं इसे
क्योंकि जबान –
इसकी सबसे बडी लाइब्रेरी है आज भी
कभी आना मेरे घर
तुम्हें सुनाऊंगा
मेरे झरोखे पर रखा शंख है यह
जिसमें धीमे-धीमे बजते हैं
सातों समुद्र.
केदारनाथ सिंह Ki Kavita
मैंने सुना-
तौलिया गमछे से कह रहा था
तू हिंदी में सूखरहा है
सूख
मैं अंग्रेज़ी में कुछ देर
झपकी ले लेता हूं।
दुनिया के तमाम शहरों से
खदेड़ी हुई जिप्सी है वह
तुम्हारे शहर की धूल में
अपना खोया हुआ नाम और पता खोजती हुई
आदमी के जनतंत्र में
घास के सवाल पर
होनी चाहिए लंबी एक अखंड बहस
पर जब तक वह न हो
शुरुआत के तौर पर मैं घोषित करता हूं
कि अगले चुनाव में
मैं घास के पक्ष में
मतदान करूंगा
कोई चुने या न चुने
एक छोटी सी पत्ती का बैनर उठाए हुए
वह तो हमेशा मैदान में है।
कभी भी…
कहीं से भी उग आने की
एक जिद है वह.
Kedarnath Singh Poems in Hindi
आज घर में घुसा
तो वहाँ अजब दृश्य था
सुनिए — मेरे बिस्तर ने कहा —
यह रहा मेरा इस्तीफ़ा
मैं अपने कपास के भीतर
वापस जाना चाहता हूँ
उधर कुर्सी और मेज़ का
एक सँयुक्त मोर्चा था
दोनों तड़पकर बोले —
जी, अब बहुत हो चुका
आपको सहते-सहते
हमें बेतरह याद आ रहे हैं
हमारे पेड़
और उनके भीतर का वह
ज़िन्दा द्रव
जिसकी हत्या कर दी है
आपने
उधर आलमारी में बन्द
क़िताबें चिल्ला रही थीं
खोल दो, हमें खोल दो
हम जाना चाहती हैं अपने
बाँस के जंगल
और मिलना चाहती हैं
अपने बिच्छुओं के डंक
और साँपों के चुम्बन से
पर सबसे अधिक नाराज़ थी
वह शॉल
जिसे अभी कुछ दिन पहले कुल्लू से ख़रीद लाया था
बोली — साहब!
आप तो बड़े साहब निकले
मेरा दुम्बा भेड़ा मुझे कब से
पुकार रहा है
और आप हैं कि अपनी देह
की क़ैद में
लपेटे हुए हैं मुझे
उधर टी० वी० और फ़ोन का
बुरा हाल था
ज़ोर-ज़ोर से कुछ कह रहे थे
वे
पर उनकी भाषा
मेरी समझ से परे थी
कि तभी
नल से टपकता पानी तड़पा —
अब तो हद हो गई साहब!
अगर सुन सकें तो सुन
लीजिए
इन बूँदों की आवाज़ —
कि अब हम
यानी आपके सारे के सारे
क़ैदी
आदमी की जेल से
मुक्त होना चाहते हैं
अब जा कहाँ रहे हैं —
मेरा दरवाज़ा कड़का
जब मैं बाहर निकल रहा था।
अगर इस बस्ती से गुज़रो
तो जो बैठे हों चुप
उन्हें सुनने की कोशिश करना
उन्हें घटना याद है
पर वे बोलना भूल गए हैं।
पर्वतों में मैं
अपने गाँव का टीला हूँ
पक्षियों में कबूतर
भाखा में पूरबी
दिशाओं में उत्तर
वृक्षों में बबूल हूँ
अपने समय के बजट में
एक दुखती हुई भूल
नदियों में चंबल हूँ
सर्दियों में
एक बुढ़िया का कंबल
इस समय यहाँ हूँ
पर ठीक समय
बगदाद में जिस दिल को
चीर गई गोली
वहाँ भी हूँ
हर गिरा खून
अपने अंगोछे से पोंछता
मैं वही पुरबिहा हूँ
जहां भी हूँ।
Kedarnath Singh Poetry
जब ट्रेन चढ़ता हूँ
तो विज्ञान को धन्यवाद देता हूँ
वैज्ञानिक को भी
जब उतरता हूँ वायुयान से
तो ढेरों धन्यवाद देता हूँ विज्ञान को
और थोड़ा सा ईश्वर को भी
पर जब बिस्तर पर जाता हूँ
और रोशनी में नहीं आती नींद
तो बत्ती बुझाता हूँ
और सो जाता हूँ
विज्ञान के अंधेरे में
अच्छी नींद आती है।
आम की सोर पर
मत करना वार
नहीं तो महुआ रात भर
रोएगा जंगल में
कच्चा बांस कभी काटना मत
नहीं तो सारी बांसुरियाँ
हो जाएंगी बेसुरी
कल जो मिला था राह में
हैरान-परेशान
उसकी पूछती हुई आँखें
भूलना मत
नहीं तो सांझ का तारा
भटक जाएगा रास्ता
किसी को प्यार करना
तो चाहे चले जाना सात समुंदर पार
पर भूलना मत
कि तुम्हारी देह ने एक देह का
नमक खाया है।
केदारनाथ सिंह की कविता बादल ओ – केदारनाथ सिंह की कविता on badal o
जाऊंगा कहाँ
रहूँगा यहीं
किसी किवाड़ पर
हाथ के निशान की तरह
पड़ा रहूँगा
किसी पुराने ताखे
या सन्दूक की गंध में
छिपा रहूँगा मैं
दबा रहूँगा किसी रजिस्टर में
अपने स्थायी पते के
अक्षरों के नीचे
या बन सका
तो ऊंची ढलानों पर
नमक ढोते खच्चरों की
घंटी बन जाऊंगा
या फिर माँझी के पुल की
कोई कील
जाऊंगा कहाँ
देखना
रहेगा सब जस का तस
सिर्फ मेरी दिनचर्या बादल जाएगी
साँझ को जब लौटेंगे पक्षी
लौट आऊँगा मैं भी
सुबह जब उड़ेंगे
उड़ जाऊंगा उनके संग…
