गंगा दशहरा का दिन हिन्दू धर्म के लोगो के लिए बहुत महत्वपूर्ण है ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को दशहरा मनाया जाता है साल 2018 में गंगा दशहरा 24 मई के दिन है| इस दिन सभी लोग गंगा में स्नान करने जाते है जिससे की उनके सभी पाप व उनके ऊपर से दरिद्रता दूर हो जाती है इसीलिए गंगा दशहरा के मौके पर हम आपको कुछ बेहतरीन कविताये बताते है जो की आपके लिए काफी महत्वपूर्ण है जिसे की आप गंगा दश्हरा के मौके पर अपने दोस्तों के साथ शेयर कर सकते है |
Ganga Dussehra Short Poems in Hindi
अविरल , कोमल ,चंचल ,निर्मल !
गंगा का यह पावन जल ,
थोड़ा चंचल ,थोड़ा शीतल ,
गंगा का यह पावन जल ,
जो दरिया मिल जाए इसमें ,
वह भी गंगा का पावन जल ,
कभी न शांत हो ,
हवा जब शांत हो ,
चले यह हर पल! ,
गंगा का यह पावन जल ,
जब कोई स्नान करे ,
जाए यह तब उछल- उछल ,
गंगा का यह पावन जल ,
काशी की ‘गरिमा ‘,
शिव की ‘महिमा ‘,
है गंगा का पावन जल ,
देश- देश से आये वासी,
देखने गंगा का पावन जल ,
धन्य हुए है काशीवासी ,
पाकर यह गंगा का पावन जल ,
अविरल, कोमल, चंचल, निर्मल ,
गंगा का यह पावन जल !
Ganga Dussehra Day Shayari and Poetry in Hindi
जो फेंका तुमने निर्माल्य को नदी में
मछली दे देगी श्राप तड़पकर
और तुम बन जाओगे मछली अगले जनम में
फिर होगा तुम्हारा जन्म किसी नाले में
मत डालो अब गंगा में धूप-लोबान
कि वह जल रही है धरती की चिता पर
सती की मानिन्द, एक लम्बे समय से
क्यूँ कुरेद रहे हो उसका मन तुम बारहों मास
और बना रहे हो झील निकालकर उसमें से रेत
लील लेगी एक दिन तुम्हे भी उसकी बदली हुई चाल
जाओ, शंखनाद कर रोक लो नदी पर बनता बाँध
कर आओ प्राण प्रतिष्ठा पहाड़ों पर लगाकर कुछ पेड़
फिर सुनाओ मछलियों को ज़िन्दगी का पवित्र मन्त्र
और मना लो गंगा दशहरा इस सही विधि के साथ ।
Ganga Dussehra Ki Kavita
नदियों के जल जब निर्मल होंगे,
गंगा जल अमृत बन जाएगा।
जन-जन में जब आस जागेगी,
गंदगी न कोई फैलाएगा।
मुर्दाघाट जब अलग बनेगा,
कोई लाश नहीं दफनाएगा।
स्नान हेतु लोग आया करेंगे,
कर के स्नान चले जाएंगे।
फिर दूषित न हो पाएगा,
सब जल में दीप जलाएंगे।
हर-हर गंगा लोग करेंगे,
फिर वह मौसम आएगा।
Ganga Dussehra Kavita in Hindi
कैसे पावन गँगा का इस धरती पर अवतरण हुआ
कैसे थे वो भागीरथ परमार्थ का ऊँचा गगन छुआ
इक्ष्वाकु कुल के वंशज श्री राम के विरले पूर्वज थे
परम प्रतापी सगर नाम के राजा एक अपूरब थे
दिकशासन की इच्छा थी मैं चक्रवर्ती सम्राट बनूं
क्यों ना अश्वमेघ करवाऊं कुल शासन जयवन्त करूं
हुआ महाआयोजन अश्वमेध की जय जयकार हुई
हुई शुरू दिग्विजय यात्रा विकट अश्व हुंकार हुई
सठहजार सुत राजा के अभियान अश्व में निकले थे
मद में चूर महाबलशाली महाविजय को मचले थे
एक दिवस ऋषि श्रेष्ठ कपिल का आश्रम राह में आया था
ध्यानमगन मुनि थे उनसे सत्कार उचित ना पाया था
विकट किया उत्पात आश्रम तहस नहस चहुंओर किया
दमन किया अपमान किया फिर धृष्ट नाद घनघोर किया
ध्यान टूटता है ऋषिवर का क्रुद्ध हुये चिंघाड़ उठी
मद में चूर शूर पुत्रों पर तप अग्नि भभकार उठी
भभक उठी फिर लप लप लपटें प्रलयंकारी तेज उठा
भस्मीभूत राजवंशी सब हुये गगन तक उठा धुआँ
हो दु:स्वप्न प्रलय में परिणित कौंध कहर बन आया काल
सहस्रषष्ठ सुत सगर राज के कवलित हुये काल के गाल
दारुणता हो गई सुमेरु पीर बही दुख हुआ अपार
व्यथा हुई नासूर शूर की असहनीय हुआ पीड़ा भार
हो स्तब्ध सुना सब वर्णन वज्राघात सहा ना जाय
कितना सहें कहें अब किसको हे शम्भू यह कैसा न्याय
कपिल ऋषि की शरण में जाके पूछा फिर कोई उपचार
कैसे मिले शांति अंशों को कैसे हो इनका उद्धार
तप की अग्नि से सब भस्म हुये हैं राजन सुत तेरे
कोई भी सरयू न धरा पर जो काटे दुष्कर्म घने
केवल मात्र हिमालय पुत्री देवी गँगा की लहरें
इन्हें मुक्ति देना इस जग में केवल उनके है वश में
ओम पुकारो तप को जाओ ब्रम्हा जी को याद करो
लिये कमंडल में गंगाजल नीरज पथ निर्बाध करो
राजा हुए प्रसन्न ठान कर उठे धन्य कर लूँगा राज़
गंगा वंदन सुख संवर्धन ही अब होगा मेरा काज
परम पूज्य आनँद रुप माँ गंगे तुम्हें मनाऊंगा
कर के जप तप तुम्हें हिमालय से धरती पर लाऊँगा
ब्रम्हा जी को कर प्रसन्न वरदान में गँगा लेनी थी
गंगा की अमृत धारा से सुतों को मुक्ति देनी थी
सौंप राज सब अंशुमान को जो अंतिम पुत्र थे शेष
करी तपस्या छोड़ लेश्या त्याग दिये सब कल्मष क्लेश
घोर किया जप तप वंदन पर ब्रम्हा नहीँ प्रसन्न हुये
पितृ इच्छा से अंशुमान भी तपोध्यान आसन्न हुये
इसी श्रंखला में पौत्र श्री राजा दिलीप चंद्र आये
कुल की शांति हेतु तपस्या ब्रम्हा की करने आये
बाद सगर के इक परपौत्र जो भागीरथ जी कहलाये
कुल पूर्वज सम्मान के हेतु राज पाट सब तज आये
राजा सगर के पुत्रों का बलिदान व्यर्थ ना जायेगा
गँगा माँ का जल कल-कल करता धरती पर आयेगा
अँगूठे पर अविचल खड़े हुये फिर करी तपस्या खूब
हुए प्रसन्न ब्रम्ह जी आये मांगो तुम वरदान अनूप
प्रभुवर हमको गंगा देदो भक्तों का कल्याण करो
युगों युगों तक मुक्ति वाले उपक्रम का निर्माण करो
वत्स तुम्हें परहेतु देवीका गंगा तो मिल जायेगी
किंतु वेग विकट है जल का धरती झेल ना पायेगी
तुम शिव शम्भू को आराधो वो ही कुछ कर पायेंगे
गंगा पॄथ्वी पर लाने का वो उपाय बतलायेंगे
फिर छेड़ी इक मुहिम तपस्या शंकर जी की कर डाली
भोले तो भोले हैं आखिर कर ली उनने तैयारी
जटा जूट सब खोल हुये तैयार आओ गंगा देवी
मेरे मस्तक आँन विराजो कर प्रयाण जाओ देवी
गंगा जी सुरलोक की सरयू चैन अमन से बहती थीं
आनंदित थी रमी हुई थीं सुख का अनुभव करती थीं
बड़ी अनिच्छा से निकली सम्पूर्ण प्रवाह बढ़ाया था
शिव जी वेग ना सह पायेंगे भाव ह्रदय में आया था
शिव शम्भू तो अंतर्यामी दर्प गंग का जान लिये
गंगा तो सर पर ले ली पर केश जटायें बाँध लिये
एक बूँद ना बाहर निकली कैद हो गई जलराशी
जब विनती की गंगा ने तब एक जटा दी झटकारी
अतुल वेग से गंगा निकली धरती की ली दिशा पकड़
राह पड़ा ऋषि जह्वण आश्रम बहा ले गई उमड़ गुमड़
ऋषि क्रोध में आकर पी गये पल में ही गंगा सारी
करी प्रार्थना भागीरथ ने गँगा जी भी पछताईं
रिहा किया तबसे ही गँगा जाह्न्वी जी कहलाईं
परम तपस्वी भागीरथ से भागीरथी हुईं नामी
गँगा जल जब हुआ समर्पण सठसहस्र भव पार हुये
नृप श्री सगर के भस्म सुतों के पल भर में उद्धार हुए
कृत उपकृत हो गई धरा युग युग ने गाथा गाई है
पुण्यसलिल गँगा में युगों युगों ने मुक्ति पाई है
विरल है ऐसी करुणा अद्भुत ह्रदय, वेदना सम्वेदन
जनहित में निजहेतु त्यागकर आहुति किया पूर्ण जीवन
ध्येय पुनीत हों प्रण हों ‘मौलिक’ नभ भी शीश झुकाता है
गँगा जैसी नदियों का भी वेग धरा पर आता है।।
