हसरत मोहानी जी का पूरा नाम सय्यद फ़ज़ल-उल-हसन तख़ल्लुस हसरत था उनका जन्म 1 जनवरी 1875 में मोहान, उन्नाव जिला, ब्रिटिश भारत में तथा मृत्यु 76 साल की उम्र में 13 मई 1951 में लखनऊ, उत्तर प्रदेश में हुई थी | वह एक बहुत बड़े साहित्यकार, इस्लामी विद्वान, शायर, पत्रकार, समाजसेवक तथा इंकलाब जिंदाबाद का नारा देने वाले देशभक्त थे | इसीलिए हम आपको उनके द्वारा लिखी गयी कुछ बेहतरीन शेरो शायरियो के बारे में बताते है जिसे आप अपने दोस्तों के साथ शेयर भी कर सकते है |
हसरत मोहानी के शेर
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ग़म-ए-आरज़ू का ‘हसरत’ सबब और क्या बताऊँ
मिरी हिम्मतों की पस्ती मिरे शौक़ की बुलंदी
खींच लेना वो मिरा पर्दे का कोना दफ़अतन
और दुपट्टे से तिरा वो मुँह छुपाना याद है
इक़रार है कि दिल से तुम्हें चाहते हैं हम
कुछ इस गुनाह की भी सज़ा है तुम्हारे पास
कहाँ हम कहाँ वस्ल-ए-जानाँ की ‘हसरत’
बहुत है उन्हें इक नज़र देख लेना
ख़ंदा-ए-अहल-ए-जहाँ की मुझे पर्वा क्या है
तुम भी हँसते हो मिरे हाल पे रोना है यही
मालूम सब है पूछते हो फिर भी मुद्दआ’
अब तुम से दिल की बात कहें क्या ज़बाँ से हम
पुर्सिश-ए-हाल पे है ख़ातिर-ए-जानाँ माइल
जुरअत-ए-कोशिश-ए-इज़हार कहाँ से लाऊँ
Hasrat Mohani Ki Shayari
बे-ज़बानी तर्जुमान-ए-शौक़ बेहद हो तो हो
वर्ना पेश-ए-यार काम आती है तक़रीरें कहीं
पैग़ाम-ए-हयात-ए-जावेदाँ था
हर नग़्मा-ए-कृष्ण बाँसुरी का
बरसात के आते ही तौबा न रही बाक़ी
बादल जो नज़र आए बदली मेरी नीयत भी
पैग़ाम-ए-हयात-ए-जावेदाँ था
हर नग़्मा-ए-कृष्ण बाँसुरी का
बर्क़ को अब्र के दामन में छुपा देखा है
हम ने उस शोख़ को मजबूर-ए-हया देखा है
तेरी महफ़िल से उठाता ग़ैर मुझ को क्या मजाल
देखता था मैं कि तू ने भी इशारा कर दिया
मुझ से तन्हाई में गर मिलिए तो दीजे गालियाँ
और बज़्म-ए-ग़ैर में जान-ए-हया हो जाइए
Hasrat Mohani Ghazals in Urdu
‘हसरत’ की भी क़ुबूल हो मथुरा में हाज़िरी
सुनते हैं आशिक़ों पे तुम्हारा करम है आज
‘हसरत’ जो सुन रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का हाल
इस में भी कुछ फ़रेब तिरी दास्ताँ के हैं
बाम पर आने लगे वो सामना होने लगा
अब तो इज़हार-ए-मोहब्बत बरमला होने लगा
शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रखनी
दिन हो या रात हमें ज़िक्र उन्हीं का करना
शेर दर-अस्ल हैं वही ‘हसरत’
सुनते ही दिल में जो उतर जाएँ
जो और कुछ हो तिरी दीद के सिवा मंज़ूर
तो मुझ पे ख़्वाहिश-ए-जन्नत हराम हो जाए
शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द व-लेकिन ‘हसरत’
‘मीर’ का शेवा-ए-गुफ़्तार कहाँ से लाऊँ
हसरत मोहानी ग़ज़ल्स
उन को याँ वादे पे आ लेने दे ऐ अब्र-ए-बहार
जिस क़दर चाहना फिर बाद में बरसा करना
शिकवा-ए-ग़म तिरे हुज़ूर किया
हम ने बे-शक बड़ा क़ुसूर किया
ख़ूब-रूयों से यारियाँ न गईं
दिल की बे-इख़्तियारियाँ न गईं
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तिरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है
देखने आए थे वो अपनी मोहब्बत का असर
कहने को ये है कि आए हैं अयादत कर के
दिल को ख़याल-ए-यार ने मख़्मूर कर दिया
साग़र को रंग-ए-बादा ने पुर-नूर कर दिया
हम क्या करें अगर न तिरी आरज़ू करें
दुनिया में और भी कोई तेरे सिवा है क्या
Shayari of Hasrat Mohani
हम जौर-परस्तों पे गुमाँ तर्क-ए-वफ़ा का
ये वहम कहीं तुम को गुनहगार न कर दे
है मश्क़-ए-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी
इक तुर्फ़ा तमाशा है ‘हसरत’ की तबीअत भी
छुप नहीं सकती छुपाने से मोहब्बत की नज़र
पड़ ही जाती है रुख़-ए-यार पे हसरत की नज़र
दिलों को फ़िक्र-ए-दो-आलम से कर दिया आज़ाद
तिरे जुनूँ का ख़ुदा सिलसिला दराज़ करे
है इंतिहा-ए-यास भी इक इब्तिदा-ए-शौक़
फिर आ गए वहीं पे चले थे जहाँ से हम
वस्ल की बनती हैं इन बातों से तदबीरें कहीं
आरज़ूओं से फिरा करती हैं तक़दीरें कहीं
है वहाँ शान-ए-तग़ाफ़ुल को जफ़ा से भी गुरेज़
इल्तिफ़ात-ए-निगह-ए-यार कहाँ से लाऊँ
हसरत मोहानी कृष्ण भक्ति
वफ़ा तुझ से ऐ बेवफ़ा चाहता हूँ
मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ
देखा किए वो मस्त निगाहों से बार बार
जब तक शराब आई कई दौर हो गए
वाक़िफ़ हैं ख़ूब आप के तर्ज़-ए-जफ़ा से हम
इज़हार-ए-इल्तिफ़ात की ज़हमत न कीजिए
दावा-ए-आशिक़ी है तो ‘हसरत’ करो निबाह
ये क्या के इब्तिदा ही में घबरा के रह गए
कोशिशें हम ने कीं हज़ार मगर
इश्क़ में एक मो’तबर न हुई
जबीं पर सादगी नीची निगाहें बात में नरमी
मुख़ातिब कौन कर सकता है तुम को लफ़्ज़-ए-क़ातिल से
तोड़ कर अहद-ए-करम ना-आश्ना हो जाइए
बंदा-परवर जाइए अच्छा ख़फ़ा हो जाइए
Maulana Hasrat Mohani Shayari
उस ना-ख़ुदा के ज़ुल्म ओ सितम हाए क्या करूँ
कश्ती मिरी डुबोई है साहिल के आस-पास
हक़ीक़त खुल गई ‘हसरत’ तिरे तर्क-ए-मोहब्बत की
तुझे तो अब वो पहले से भी बढ़ कर याद आते हैं
सभी कुछ हो चुका उन का हमारा क्या रहा ‘हसरत’
न दीं अपना न दिल अपना न जाँ अपनी न तन अपना
मुझ को देखो मिरे मरने की तमन्ना देखो
फिर भी है तुम को मसीहाई का दा’वा देखो
रानाई-ए-ख़याल को ठहरा दिया गुनाह
वाइज़ भी किस क़दर है मज़ाक़-ए-सुख़न से दूर
‘हसरत’ बहुत है मर्तबा-ए-आशिक़ी बुलंद
तुझ को तो मुफ़्त लोगों ने मशहूर कर दिया
बद-गुमाँ आप हैं क्यूँ आप से शिकवा है किसे
जो शिकायत है हमें गर्दिश-ए-अय्याम से है
Hasrat Mohani Urdu Shayari
रात दिन नामा-ओ-पैग़ाम कहाँ तक दोगे
साफ़ कह दीजिए मिलना हमें मंज़ूर नहीं
रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
दहका हुआ है आतिश-ए-गुल से चमन तमाम
नहीं आती तो याद उन की महीनों तक नहीं आती
मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं
मिलते हैं इस अदा से कि गोया ख़फ़ा नहीं
क्या आप की निगाह से हम आश्ना नहीं
मुनहसिर वक़्त-ए-मुक़र्रर पे मुलाक़ात हुई
आज ये आप की जानिब से नई बात हुई
फिर और तग़ाफ़ुल का सबब क्या है ख़ुदाया
मैं याद न आऊँ उन्हें मुमकिन ही नहीं है
मानूस हो चला था तसल्ली से हाल-ए-दिल
फिर तू ने याद आ के ब-दस्तूर कर दिया
Hasrat Mohani Famous Poetry
तासीर-ए-बर्क़-ए-हुस्न जो उन के सुख़न में थी
इक लर्ज़िश-ए-ख़फ़ी मिरे सारे बदन में थी
भूल ही जाएँ हम को ये तो न हो
लोग मेरे लिए दुआ न करें
गुज़रे बहुत उस्ताद मगर रंग-ए-असर में
बे-मिस्ल है ‘हसरत’ सुख़न-ए-‘मीर’ अभी तक
कट गई एहतियात-ए-इश्क़ में उम्र
हम से इज़हार-ए-मुद्दआ न हुआ
कभी की थी जो अब वफ़ा कीजिएगा
मुझे पूछ कर आप क्या कीजिएगा
इल्तिफ़ात-ए-यार था इक ख़्वाब-ए-आग़ाज़-ए-वफ़ा
सच हुआ करती हैं इन ख़्वाबों की ताबीरें कहीं
ग़ुर्बत की सुब्ह में भी नहीं है वो रौशनी
जो रौशनी कि शाम-ए-सवाद-ए-वतन में था
